गुरुवार, 19 अगस्त 2010

ज़वान जज़्बे


यह जुल्मे-शहनशाही    जिस  वक़्त  मिटा देंगे 
सोई  हुई दुनिया की     क़िस्मत को  जगा  देंगे
इफ़लास  के  सीने  से      शोले  जो  लपकते  हैं 
महलों  में   अमीरों   के     वो  आग   लगा   देंगे 
हैं   आज  बग़ावत  पर      तैयार    जवां   जज़्बे
जल्लाद  हुकुमत   की     बुनियाद    हिला  देंगे
यूँ   फूल  खिलाएंगे      टपका   के   लहू   अपना
ग़ुरबत  के  बयाबां   को      गुलज़ार   बना   देंगे
हम  पर्चमे-क़ौमी   को     लहरा  के हिमाला पर
दुश्मन  की  हुकुमत   के      झंडे  को  झुका देंगे
जो आड़   में मज़हब  की     हंगामा  करे   बरपा
हम   ऐसे   फ़सादी   को        गंगा  में   बहा  देंगे
सर जाए की जां जाए,   ऐ मादरे-हिन्द इक दिन
ज़िल्लत से गुलामी की     हम तुझको छुड़ा देंगे
किस  तरह संवरता है   सर देने से  मुस्तक़बिल
ग़ैरों   को   बता  देंगे      अपनों  को    सिखा दंगे



इफ़लास      - दरिद्रता
मुस्तक़बिल -भविष्य
                                             -'शमीम' करहानी द्वारा रचित 



स्वतन्त्रता संग्राम  के  दौरान   शमीम  द्वारा  लिखी  गयी यह  नज़्म  आज .........जब   भ्रष्ट  राजनीति   और साम्प्रदायिकता की   दुरभि-संधि  देश का  कबाड़ा  किये  जा  रही  है,  कहीं   ज्यादा  प्रासंगिक  है जितनी उस समय थी  |


 

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