शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

अधिकारों कि लड़ाई या खालिश गधापन ????

अभी पिछले दिनों विभूति नारायण राय की महिला लेखकों पर की गयीं अमर्यादित टिप्पड़ी  ने मीडिया और साहित्य जगत में  काफी बवेला मचाया  |


इसके लिए राय को खूब लानतें भी दी गयीं ( वैसे देने वालों ने तो मीडिया के सामने चुन-चुन कर,  गला फाड़ कर गालियाँ देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी ताकि लगे हाथ खुद को सच्चा बाज-बहादुर घोषित किया जा सके  )

यह सही है की वि. न. राय ने ऐसे ओछे शब्दों   का इस्तेमाल कर न सिर्फ एक प्रतिष्ठित  संस्थान और अपने पद की गरिमा को कलंकित किया है बल्कि हिंदी भाषा और साहित्य का भी अपमान किया है  , इसके लिए उन्हें कभी भी क्षमा नहीं किया जा सकता | किन्तु पहली बात तो यह की  क्या  इस ओर ध्यान देने की जरुरत नहीं  है  की  विभूति नारायण की आलोचना करते-करते हमने अपनी सारी मर्यादायों को तार-तार  कर दिया..........आलोचना के फेर में हम  इस शख्स से कई कदम आगे निकल आये..............और ऊपर से तुर्रा यह की हम अपने को पाक-साफ़ घोषित करते जा रहे हैं???

और  तो  और  हमारी  महिला  लेखक  भी  पीछे नहीं रहीं  इस कुकरहाव में !!!!

तो भैया फर्क क्या रहा हम में और राय के बीच ???


यह तो रही राय की बात , पर असल बात तो यह है कि

आखिर कभी इतना बवाल तब क्यों नहीं मचता जब स्त्री-लेखन और विमर्श  के नाम पर  जी  भर-भर के पुरूषों को तो गालियाँ  दी  ही जाती हैं ,   महिलाओं  को  भी  नहीं  छोड़ा  जाता  और इसमें  उन  तथाकथित-स्वयंभू  महिला   लेखकों  और  विचारकों  का  महान योगदान रहता है |
 

क्या उन्हें सिर्फ  इस बात की  छूट  देते  रहना चाहिए  की वे या तो  स्वयं  महिला हैं  या फिर  महिलाओं के लिए  लिखते हैं ???

इससे  तो  यही  सिद्ध   होता  है की  यहाँ  ऐसे  विभूति  नारायणो  की कमी नहीं है |

और सिर्फ स्त्री - लेखन  ही  क्यों  जरा   दलित-लेखन की   ओर  भी  नजरें  घुमाइए.......दलित  लेखन के नाम  पर जिस तरह  से  सवर्णों  को  गालियाँ  दी जाती रहीं हैं  उसे क्या माना जाना चाहिए ???


दलित-लेखन  और स्त्री-लेखन के बहाने अपनी दूकान चलाने वाले इन स्वयंभू  मठाधिशो को  की आलोचना करने  का साहस  क्या किसी  में भी नहीं है???


दलितों और  स्त्रियों को  सामान  दर्जा दिलाने  के नाम पर आखिर कब तक इस छुद्र  मानसिकता का समर्थन किया जाता रहेगा ???


क्या   गरिया   देने   भर   से  स्त्रियों-दलितों  को  उनका  हक मिल जाता है ???


क्या  समाज  में उनको   सामान    एवं  सम्माननीय स्थान मिल जाएगा ???


जी बिलकुल भी नहीं !!!!! 
बल्कि ऐसे तो  सामाजिक विद्वेष कि भावना और बढ़ेगी |



हाँ  ऐसी  हरक़तों  से  वे   तथाकथित-स्वयंभू   उद्धारक  खुद  को स्त्रियों-दलितों के   मसीहा के रूप में जरुर स्थापित कर लेते हैं  |

एक तरफ तो बात स्त्री - पुरुष समानता की की जाती  है  पर तुरंत ही उनका गधों कि तरह रेंकना माफ़ कीजियेगा  गरियाना चालू हो जाता हैं....... (मानो गधों का कोरस गान चल रहा हो ).........

क्यों भला ???

फिर ऐसे  तो समानता आने से रही |
तो क्या यह सही  वक्त नहीं है एक बार फिर इस बात पर विचार करने का ????


ताकि एक जातिगत - लैंगिक भेदभाव  मुक्त,  समता - मूलक समाज की स्थापना का स्वप्न पूरा किया जा सके........एक बेहतर भारत का निर्माण हो सके |

और वह   भी  तब  जब हमने   कुछ  ही  दिन पहले अपना  स्वतंत्रता-दिवस  मनाया है !!!!!!!

ज़वान जज़्बे


यह जुल्मे-शहनशाही    जिस  वक़्त  मिटा देंगे 
सोई  हुई दुनिया की     क़िस्मत को  जगा  देंगे
इफ़लास  के  सीने  से      शोले  जो  लपकते  हैं 
महलों  में   अमीरों   के     वो  आग   लगा   देंगे 
हैं   आज  बग़ावत  पर      तैयार    जवां   जज़्बे
जल्लाद  हुकुमत   की     बुनियाद    हिला  देंगे
यूँ   फूल  खिलाएंगे      टपका   के   लहू   अपना
ग़ुरबत  के  बयाबां   को      गुलज़ार   बना   देंगे
हम  पर्चमे-क़ौमी   को     लहरा  के हिमाला पर
दुश्मन  की  हुकुमत   के      झंडे  को  झुका देंगे
जो आड़   में मज़हब  की     हंगामा  करे   बरपा
हम   ऐसे   फ़सादी   को        गंगा  में   बहा  देंगे
सर जाए की जां जाए,   ऐ मादरे-हिन्द इक दिन
ज़िल्लत से गुलामी की     हम तुझको छुड़ा देंगे
किस  तरह संवरता है   सर देने से  मुस्तक़बिल
ग़ैरों   को   बता  देंगे      अपनों  को    सिखा दंगे



इफ़लास      - दरिद्रता
मुस्तक़बिल -भविष्य
                                             -'शमीम' करहानी द्वारा रचित 



स्वतन्त्रता संग्राम  के  दौरान   शमीम  द्वारा  लिखी  गयी यह  नज़्म  आज .........जब   भ्रष्ट  राजनीति   और साम्प्रदायिकता की   दुरभि-संधि  देश का  कबाड़ा  किये  जा  रही  है,  कहीं   ज्यादा  प्रासंगिक  है जितनी उस समय थी  |


 

शनिवार, 14 अगस्त 2010

जिंदगी का राज मुजामिर....... ----शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल'

 






                                                                    स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायों सहित 





                                 देश पर कुर्बान हो जाने वाले शहीदों को समर्पित 



चर्चा अपने क़त्ल का अब यार की महफ़िल में है 
देखना  है यह   तमाशा  कौन-सी   मंजिल में  है

देश  पर   कुर्बान होते  जाओ  तुम,   ऐ  हिंदियों
जिंदगी  का  राज़ मुज़मिर  खंजरे -कातिल में है

साहिले-मक्सूद   पर ले  चल  खुदारा ,   नाखुदा
आज हिन्दुस्तान  की  कश्ती  बड़ी मुश्किल में है 

दूर हो  अब   हिंदी से    तारीकी-ऐ-बुग्ज़ो-हसद
बस  यही हसरत ,  यही अरमां  हमारे दिल में है 

बामे-रफअत  पर चढ़ा  दो  देश  पर होकर फ़ना
'बिस्मिल' अब इतनी हवस बाक़ी हमारे दिल में है




मुज़मिर -     निहित
साहिले-मक्सूद -  अभीष्ट तट
खुदारा  -         खुदा के लिए
नाखुदा   -       मल्लाह 
तारिकी-ए-बुग्ज़ो - ईर्ष्या और द्वेष का अंधकार
बामे-रफअत  -  ऊंची छत

बुधवार, 4 अगस्त 2010

" शोरिशे - जुनूं "..........शहीदे - काकोरी अश्फाकउल्ला खां 'अश्फाक' की आखिरी नज्म

 






"बहार आई  है 'शोरिश'  है   जूनुने-फितना सामां की
  इलाही   खैर    रखना  तू       मिरे   जैबो-गरीबां   की 


भला जज्बाते-उल्फत  भी   कहीं  मिटने  से मिटते हैं 
अबस  हैं  धमकियां  दारो-रसन की   और जिन्दां   की


वो गुलशन  जो  कभी  आजाद  था   गुजरे  ज़माने  में 
मैं   हूँ  शाखे-शिक़स्ता   यां  उसी  उजड़े  गुलिस्तां  की 


नहीं  तुमसे   शिकायत  हमसफीराने-चमन    मुझको
मेरी   तकदीर में ही था   कफस और  कैद  जिन्दां  की 


जमीं  दुश्मन    जमां दुश्मन ,  जो  अपने  थे   पराये हैं
सुनोगे  दास्तां  क्या  तुम ,      मेरे  हाले   परीशां   की


ये झगड़े  और   बखेड़े   मेट कर   आपस  में  मिल  जाओ
अबस   तफरीक  है  तुम में   यह हिन्दू और मुसलमां की


सभी   सामाने-ईश्रत  थे ,     मजे  से  अपनी  कटती   थी
वतन  के  ईश्क  ने  हमको  हवा  खिलवाई    जिन्दां  की 


बहम्द इल्लाह  चमक उट्ठा   सितारा मेरी किस्मत का
क़ि  तकलीदे-हकीकी   की       अता    शाहे-शहीदां    की


ईधर  खौफे-खजां  है     आशियां  का  गम  उधर दिल को 
हमें यकसां है  तफरीहे -चमन   और    कैद   जिन्दां    की "


शोरिश               -   ऊपद्रव ,       
सामां                  -  ऊपद्रव भड़काने वाला उन्माद
जज्बाते-उल्फत     -   प्रेम की भावना
दारो-रसन            -   सूली और फांसी का फंदा 
 जिन्दां                -    जेलखाना
शाखे-शिक़स्तां      -    टूटी हुई डाली
हमसफीराने-चमन  -  बाग़ के साथी
अबस                   -   बेकार
तफरीक               -    भेदभाव
सामाने-ईश्रत        -    सुख - चैन की सामग्री

बहम्द  इल्लाह       -   अल्लाह की कृपा से
तक़लीदे-हकीकी    -   सत्य का अनुसरण 
खौफे-खजां           -    पतझड़ का डर
आशियां               -    घोंसला