बुधवार, 4 अगस्त 2010

" शोरिशे - जुनूं "..........शहीदे - काकोरी अश्फाकउल्ला खां 'अश्फाक' की आखिरी नज्म

 






"बहार आई  है 'शोरिश'  है   जूनुने-फितना सामां की
  इलाही   खैर    रखना  तू       मिरे   जैबो-गरीबां   की 


भला जज्बाते-उल्फत  भी   कहीं  मिटने  से मिटते हैं 
अबस  हैं  धमकियां  दारो-रसन की   और जिन्दां   की


वो गुलशन  जो  कभी  आजाद  था   गुजरे  ज़माने  में 
मैं   हूँ  शाखे-शिक़स्ता   यां  उसी  उजड़े  गुलिस्तां  की 


नहीं  तुमसे   शिकायत  हमसफीराने-चमन    मुझको
मेरी   तकदीर में ही था   कफस और  कैद  जिन्दां  की 


जमीं  दुश्मन    जमां दुश्मन ,  जो  अपने  थे   पराये हैं
सुनोगे  दास्तां  क्या  तुम ,      मेरे  हाले   परीशां   की


ये झगड़े  और   बखेड़े   मेट कर   आपस  में  मिल  जाओ
अबस   तफरीक  है  तुम में   यह हिन्दू और मुसलमां की


सभी   सामाने-ईश्रत  थे ,     मजे  से  अपनी  कटती   थी
वतन  के  ईश्क  ने  हमको  हवा  खिलवाई    जिन्दां  की 


बहम्द इल्लाह  चमक उट्ठा   सितारा मेरी किस्मत का
क़ि  तकलीदे-हकीकी   की       अता    शाहे-शहीदां    की


ईधर  खौफे-खजां  है     आशियां  का  गम  उधर दिल को 
हमें यकसां है  तफरीहे -चमन   और    कैद   जिन्दां    की "


शोरिश               -   ऊपद्रव ,       
सामां                  -  ऊपद्रव भड़काने वाला उन्माद
जज्बाते-उल्फत     -   प्रेम की भावना
दारो-रसन            -   सूली और फांसी का फंदा 
 जिन्दां                -    जेलखाना
शाखे-शिक़स्तां      -    टूटी हुई डाली
हमसफीराने-चमन  -  बाग़ के साथी
अबस                   -   बेकार
तफरीक               -    भेदभाव
सामाने-ईश्रत        -    सुख - चैन की सामग्री

बहम्द  इल्लाह       -   अल्लाह की कृपा से
तक़लीदे-हकीकी    -   सत्य का अनुसरण 
खौफे-खजां           -    पतझड़ का डर
आशियां               -    घोंसला

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें