बॉलिवुड निर्देशक मिलन लूथरिया की फिल्म 'बादशाहो' की कहानी का ताना-बाना उस समय देश की दो सबसे ताकतवर महिलाओं की राजनीतिक जंग के बैकग्राउंड में बुना गया है। इस जंग में एक तरफ थीं आयरन लेडी के नाम से जानी जाने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, तो दूसरी तरफ दुनिया की सबसे खूबसूरत महिलाओं में शुमार जयपुर की महारानी गायत्री देवी, जो उस समय इंदिरा गांधी की मुखर विरोधी थीं। दो बड़ी राजनीतिक हस्तियों की इस जंग को लेकर कई सारे किस्से प्रचलित हैं। ऐसा ही एक किस्सा है इमजरेंसी के दौरान जयपुर महल में खजाने की खुदाई का। कहते हैं कि इमरजेंसी का फायदा उठाते हुए इंदिरा गांधी ने महारानी गायत्री देवी को जेल भेज दिया और उनके महल में आर्मी लगवाकर तीन महीने तक खजाने की खुदाई कराई। फिल्म बादशाहो भी इसी किस्से के इर्द-गिर्द रची गई है। आइए, जानते हैं कौन थीं महारानी गायत्री देवी, इंदिरा गांधी से उनकी जंग की क्या थी वजह और क्या है यह खजाने का किस्सा।
लूटतंत्र
गुरुवार, 29 जून 2017
शुक्रवार, 4 मार्च 2011
मंगलवार, 1 मार्च 2011
मीडिया का जातिवादी चेहरा...
बात कुछ माह पहले की है।
ऑफिस से निकल कर घर जाने के लिए ऑटो में बैठा ही था की बगल वाली खाली सीट पर एक सज्जन मुस्कराते हुए धम्म से आ बैठे। बातचीत की शुरुआत उन्होंने ही की। दो-चार मिनट इधर-उधर की बातों के बाद प्रसंगवश चर्चा शुरू हो गयी, उसी पखवाड़े में कानपुर में हुए "वैश्य सम्मलेन" में हुई कथित "गुप्ता पार्टी" की घोषणा पर।
(उल्लेखनीय है कि उक्त सम्मलेन में केंद्रीय कोयला राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल से लेकर नवीन जिंदल समेत देश के तमाम राजनेता-उद्योगपति मंचासीन थे, यानी यह कोई गली-मुहल्लों के चिरकुट नेताओं द्वारा आयोजित ऐरा-गैरा जातीय सम्मलेन नहीं था )
खैर, इस घोषणा के सम्बन्ध में मेरे विरोधी विचार जानने के बाद महोदय सिरे से ही उखड़ गये, कहने लगे- अगर ठाकुर-बाभन जाति के आधार पर पार्टी बनायें तो देश-सेवा और अगर दलितों - पिछड़ों ने पार्टी बना ली तो जातिवाद हो गया!!! ( पर वह ये भूल गए कि वैश्य भी ब्राम्हण और ठाकुरों कि तरह सवर्ण ही हैं , दलित या पिछड़े नहीं! ) वे आगे भी चालू रहे और माया-मुलायम-लालू जैसे नेताओं को जातिवादी राजनीति के सन्दर्भ में सदी के योग्यतम महापुरुषों का दर्जा दे डाला। संभवत: उन्हें यह याद नहीं रहा कि योग्य होने और आदर्श नायक होने में फर्क होता है। अगर योग्यता ही सबकुछ होती तो अपने काले इतिहास के लिए जाने जाने वाले मुसोलिनी, हिटलर से लेकर लादेन और कसाब तक योग्यता में क्या किसी से कम है?
करीब २० मिनट तक चली इस चर्चा में वे जातिवादी राजनीति और माया-मुलायम-लालू के समर्थन में बहुत कुछ कहते रहे, कुतर्क पर कुतर्क पेश करते रहे, पर मेरे तर्कों के सामने उनकी बोलती बंद होती रही। परन्तु इस सबके अंत में उन्होंने जो कुछ भी कहा, वह सबसे अधिक भयावह था। और, घृणा स्पद भी।
ऑटो से उतर कर जाते हुए उन्होंने पूछा- कब से हो इस लाइन (उनके लिए पत्रकारिता "लाइन" ही थी) में?,
१५ दिन ! मैंने बताया
तभी उन्होंने अपना वह अंतिम और भयावह वाक्य बोला - "और मुझे ३२ साल हो गए हैं पत्रकारिता करते हुए !!
सच में उनके इस वाक्य ने इस बार न सिर्फ मेरी बोलती बंद कर दी बल्कि बहुत कुछ सोचने पर भी विवश कर दिया , एक पत्रकार इस हद तक जातिवादी हो सकता है यह तो मैंने कभी सोचा ही न था,
और यह पहली बार नहीं था ,जब अपनी काली स्याही से पत्रकारिता के मुख पर कालिख पोत रहे तथाकथित पत्रकारों ( या कहें जातिवादियों ) से सामना हुआ हो, अपनी 6-7 महीनों की पत्रकारिता की छोटी सी अवधि में ही मीडिया में फ़ैल रहे इस जातिवाद को बार-बार देखने व समझने का मौका मिला है, एक बड़े अखबार में तो सिर्फ इस लिए मौका मिल रहा था कि दुर्भाग्यवश मैं एक कुलीन ब्राम्हण परिवार में जन्मा हूँ, दुर्भाग्यवश इसलिए कि एक पत्रकार के रूप में इन सबका सामना करने से अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है?
वैसे भी मीडिया में परिवारवाद और जातिवाद की शिकायतें आम हैं , पता सबको है पर कुछ बोलने की हिम्मत किसी में भी नहीं! आख़िर हम्माम में सब ..... जो है।
पत्रकारिता तो मिशन हुआ करती थी उसे आज़ादी के बाद लोकतंत्र के एक सजग प्रहरी की भूमिका दी गयी थी, लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का दर्ज़ा दिया गया था, ताकि वह समाज के विभिन्न तबकों के मध्य सदियों से जनमानस में अपनी जड़ें गहरी कर चुकी रुढियों से समाज को मुक्त कर सके, जिससे एक आदर्श लोकतंत्र का लक्ष्य पूर्ण किया जा सके और ऐसा बिना पत्रकारिता के शायद संभव न था। यही वजह थी कि महात्मा गाँधी तक ने पत्रकारिता की ताक़त को पहचाना तथा नवजीवन, यंग इण्डिया और हरिजन के माध्यम से एक सक्रिय पत्रकार की भूमिका भी निभाई |
परन्तु छि: ! आज जब हम गाँधी जयंती मानाने जा रहे हैं, तो मीडिया का यह जातिवादी चेहरा उसके प्रति जुगुप्सा और घृणा ही पैदा करता है। सिहरन हो उठती है यह सोचकर ही कि कैसे कोई पत्रकार इस हद तक जातिवादी हो सकता है? अगर पत्रकार भी जातिवादी हो जायेंगे तो फिर बचा ही क्या यहाँ? मिशनरी पत्रकारिता तो वैसे भी नाममात्र की ही बची है, वो भी दूध से भरे हुए बर्तन में चिपकी, जली हुई मलाई की तरह।
ऑफिस से निकल कर घर जाने के लिए ऑटो में बैठा ही था की बगल वाली खाली सीट पर एक सज्जन मुस्कराते हुए धम्म से आ बैठे। बातचीत की शुरुआत उन्होंने ही की। दो-चार मिनट इधर-उधर की बातों के बाद प्रसंगवश चर्चा शुरू हो गयी, उसी पखवाड़े में कानपुर में हुए "वैश्य सम्मलेन" में हुई कथित "गुप्ता पार्टी" की घोषणा पर।
(उल्लेखनीय है कि उक्त सम्मलेन में केंद्रीय कोयला राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल से लेकर नवीन जिंदल समेत देश के तमाम राजनेता-उद्योगपति मंचासीन थे, यानी यह कोई गली-मुहल्लों के चिरकुट नेताओं द्वारा आयोजित ऐरा-गैरा जातीय सम्मलेन नहीं था )
खैर, इस घोषणा के सम्बन्ध में मेरे विरोधी विचार जानने के बाद महोदय सिरे से ही उखड़ गये, कहने लगे- अगर ठाकुर-बाभन जाति के आधार पर पार्टी बनायें तो देश-सेवा और अगर दलितों - पिछड़ों ने पार्टी बना ली तो जातिवाद हो गया!!! ( पर वह ये भूल गए कि वैश्य भी ब्राम्हण और ठाकुरों कि तरह सवर्ण ही हैं , दलित या पिछड़े नहीं! ) वे आगे भी चालू रहे और माया-मुलायम-लालू जैसे नेताओं को जातिवादी राजनीति के सन्दर्भ में सदी के योग्यतम महापुरुषों का दर्जा दे डाला। संभवत: उन्हें यह याद नहीं रहा कि योग्य होने और आदर्श नायक होने में फर्क होता है। अगर योग्यता ही सबकुछ होती तो अपने काले इतिहास के लिए जाने जाने वाले मुसोलिनी, हिटलर से लेकर लादेन और कसाब तक योग्यता में क्या किसी से कम है?
करीब २० मिनट तक चली इस चर्चा में वे जातिवादी राजनीति और माया-मुलायम-लालू के समर्थन में बहुत कुछ कहते रहे, कुतर्क पर कुतर्क पेश करते रहे, पर मेरे तर्कों के सामने उनकी बोलती बंद होती रही। परन्तु इस सबके अंत में उन्होंने जो कुछ भी कहा, वह सबसे अधिक भयावह था। और, घृणा स्पद भी।
ऑटो से उतर कर जाते हुए उन्होंने पूछा- कब से हो इस लाइन (उनके लिए पत्रकारिता "लाइन" ही थी) में?,
१५ दिन ! मैंने बताया
तभी उन्होंने अपना वह अंतिम और भयावह वाक्य बोला - "और मुझे ३२ साल हो गए हैं पत्रकारिता करते हुए !!
सच में उनके इस वाक्य ने इस बार न सिर्फ मेरी बोलती बंद कर दी बल्कि बहुत कुछ सोचने पर भी विवश कर दिया , एक पत्रकार इस हद तक जातिवादी हो सकता है यह तो मैंने कभी सोचा ही न था,
और यह पहली बार नहीं था ,जब अपनी काली स्याही से पत्रकारिता के मुख पर कालिख पोत रहे तथाकथित पत्रकारों ( या कहें जातिवादियों ) से सामना हुआ हो, अपनी 6-7 महीनों की पत्रकारिता की छोटी सी अवधि में ही मीडिया में फ़ैल रहे इस जातिवाद को बार-बार देखने व समझने का मौका मिला है, एक बड़े अखबार में तो सिर्फ इस लिए मौका मिल रहा था कि दुर्भाग्यवश मैं एक कुलीन ब्राम्हण परिवार में जन्मा हूँ, दुर्भाग्यवश इसलिए कि एक पत्रकार के रूप में इन सबका सामना करने से अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है?
वैसे भी मीडिया में परिवारवाद और जातिवाद की शिकायतें आम हैं , पता सबको है पर कुछ बोलने की हिम्मत किसी में भी नहीं! आख़िर हम्माम में सब ..... जो है।
पत्रकारिता तो मिशन हुआ करती थी उसे आज़ादी के बाद लोकतंत्र के एक सजग प्रहरी की भूमिका दी गयी थी, लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का दर्ज़ा दिया गया था, ताकि वह समाज के विभिन्न तबकों के मध्य सदियों से जनमानस में अपनी जड़ें गहरी कर चुकी रुढियों से समाज को मुक्त कर सके, जिससे एक आदर्श लोकतंत्र का लक्ष्य पूर्ण किया जा सके और ऐसा बिना पत्रकारिता के शायद संभव न था। यही वजह थी कि महात्मा गाँधी तक ने पत्रकारिता की ताक़त को पहचाना तथा नवजीवन, यंग इण्डिया और हरिजन के माध्यम से एक सक्रिय पत्रकार की भूमिका भी निभाई |
परन्तु छि: ! आज जब हम गाँधी जयंती मानाने जा रहे हैं, तो मीडिया का यह जातिवादी चेहरा उसके प्रति जुगुप्सा और घृणा ही पैदा करता है। सिहरन हो उठती है यह सोचकर ही कि कैसे कोई पत्रकार इस हद तक जातिवादी हो सकता है? अगर पत्रकार भी जातिवादी हो जायेंगे तो फिर बचा ही क्या यहाँ? मिशनरी पत्रकारिता तो वैसे भी नाममात्र की ही बची है, वो भी दूध से भरे हुए बर्तन में चिपकी, जली हुई मलाई की तरह।
अब यहाँ प्रोफेशनलिज्म हावी है, शायद तभी न तो खबरों के लिए "देह का सौदा" करने में कोई हिचक है न ही "पेड खबरों" के लिए को लेकर कोई शर्म!
अब तो जिस तरह से यहाँ जातिवाद फलने -फूलने लगा है , ऐसे में तो उन महोदय से निवेदन है कि हे ! जातिवाद के नए ध्वजवाहकों, आओ, सब मिलकर इस पत्रकारिता का बेड़ा गर्क कर दें, इसकी ऐसी-तैसी करने में कोई कोर-कसर न छोड़ें, जितना जल्दी सम्भव हो, पूरे जोशो -खरोश के साथ इस "मिशन" को पूरा कर दो, ताकि हम गाँधी, विद्यार्थी और भगत सिंह के अधूरे सपनों और मिशन को पूरा करने के लिए नवसृजन की दिशा में अग्रसर हो सकें, क्योंकि नवसृजन तो हमेशा विनाश के बाद ही होता है... है न!!!
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मंगलवार, 16 नवंबर 2010
अजब हैं लोग थोड़ी सी परेशानी से डरते हैं............
कुछ दिनों पहले हमारे इक मित्र ने हमें ई-मेल के माध्यम से एक निहायत ही खूबसूरत ग़ज़ल भेजी. सोचा क्यूँ न इतनी बेहतरीन रचना को आप सब तक पहुँचाया जाए....! तो लीजिये, सर्वत एम् ज़माल की यह बेहतरीन ग़ज़ल आज आपके सामने है -
अजब हैं लोग थोड़ी सी परेशानी से डरते हैं
कभी सूखे से डरते हैं, कभी पानी से डरते हैं
तब उल्टी बात का मतलब समझने वाले होते थे
समय बदला, कबीर अब अपनी ही बानी डरते हैं
पुराने वक़्त में सुलतान ख़ुद हैरान करते थे
नये सुलतान हम लोगों की हैरानी से डरते हैं
हमारे दौर में शैतान हम से हार जाता था
मगर इस दौर के बच्चे तो शैतानी से डरते हैं
तमंचा ,अपहरण, बदनामियाँ, मौसम, ख़बर, कालिख़
बहादुर लोग भी अब कितनी आसानी से डरते हैं
न जाने कब से जन्नत के मज़े बतला रहा हूँ मैं
मगर कम अक्ल बकरे हैं कि कुर्बानी से डरते हैं
--- सर्वत एम जमाल
अजब हैं लोग थोड़ी सी परेशानी से डरते हैं
कभी सूखे से डरते हैं, कभी पानी से डरते हैं
तब उल्टी बात का मतलब समझने वाले होते थे
समय बदला, कबीर अब अपनी ही बानी डरते हैं
पुराने वक़्त में सुलतान ख़ुद हैरान करते थे
नये सुलतान हम लोगों की हैरानी से डरते हैं
हमारे दौर में शैतान हम से हार जाता था
मगर इस दौर के बच्चे तो शैतानी से डरते हैं
तमंचा ,अपहरण, बदनामियाँ, मौसम, ख़बर, कालिख़
बहादुर लोग भी अब कितनी आसानी से डरते हैं
न जाने कब से जन्नत के मज़े बतला रहा हूँ मैं
मगर कम अक्ल बकरे हैं कि कुर्बानी से डरते हैं
--- सर्वत एम जमाल
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
अधिकारों कि लड़ाई या खालिश गधापन ????
अभी पिछले दिनों विभूति नारायण राय की महिला लेखकों पर की गयीं अमर्यादित टिप्पड़ी ने मीडिया और साहित्य जगत में काफी बवेला मचाया |
इसके लिए राय को खूब लानतें भी दी गयीं ( वैसे देने वालों ने तो मीडिया के सामने चुन-चुन कर, गला फाड़ कर गालियाँ देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी ताकि लगे हाथ खुद को सच्चा बाज-बहादुर घोषित किया जा सके ) |
यह सही है की वि. न. राय ने ऐसे ओछे शब्दों का इस्तेमाल कर न सिर्फ एक प्रतिष्ठित संस्थान और अपने पद की गरिमा को कलंकित किया है बल्कि हिंदी भाषा और साहित्य का भी अपमान किया है , इसके लिए उन्हें कभी भी क्षमा नहीं किया जा सकता | किन्तु पहली बात तो यह की क्या इस ओर ध्यान देने की जरुरत नहीं है की विभूति नारायण की आलोचना करते-करते हमने अपनी सारी मर्यादायों को तार-तार कर दिया..........आलोचना के फेर में हम इस शख्स से कई कदम आगे निकल आये..............और ऊपर से तुर्रा यह की हम अपने को पाक-साफ़ घोषित करते जा रहे हैं???
और तो और हमारी महिला लेखक भी पीछे नहीं रहीं इस कुकरहाव में !!!!
तो भैया फर्क क्या रहा हम में और राय के बीच ???
यह तो रही राय की बात , पर असल बात तो यह है कि
आखिर कभी इतना बवाल तब क्यों नहीं मचता जब स्त्री-लेखन और विमर्श के नाम पर जी भर-भर के पुरूषों को तो गालियाँ दी ही जाती हैं , महिलाओं को भी नहीं छोड़ा जाता और इसमें उन तथाकथित-स्वयंभू महिला लेखकों और विचारकों का महान योगदान रहता है |
क्या उन्हें सिर्फ इस बात की छूट देते रहना चाहिए की वे या तो स्वयं महिला हैं या फिर महिलाओं के लिए लिखते हैं ???
और सिर्फ स्त्री - लेखन ही क्यों जरा दलित-लेखन की ओर भी नजरें घुमाइए.......दलित लेखन के नाम पर जिस तरह से सवर्णों को गालियाँ दी जाती रहीं हैं उसे क्या माना जाना चाहिए ???
दलित-लेखन और स्त्री-लेखन के बहाने अपनी दूकान चलाने वाले इन स्वयंभू मठाधिशो को की आलोचना करने का साहस क्या किसी में भी नहीं है???
दलितों और स्त्रियों को सामान दर्जा दिलाने के नाम पर आखिर कब तक इस छुद्र मानसिकता का समर्थन किया जाता रहेगा ???
क्या गरिया देने भर से स्त्रियों-दलितों को उनका हक मिल जाता है ???
क्या समाज में उनको सामान एवं सम्माननीय स्थान मिल जाएगा ???
हाँ ऐसी हरक़तों से वे तथाकथित-स्वयंभू उद्धारक खुद को स्त्रियों-दलितों के मसीहा के रूप में जरुर स्थापित कर लेते हैं |
एक तरफ तो बात स्त्री - पुरुष समानता की की जाती है पर तुरंत ही उनका गधों कि तरह रेंकना माफ़ कीजियेगा गरियाना चालू हो जाता हैं....... (मानो गधों का कोरस गान चल रहा हो ).........
क्यों भला ???
फिर ऐसे तो समानता आने से रही |
तो क्या यह सही वक्त नहीं है एक बार फिर इस बात पर विचार करने का ????
ताकि एक जातिगत - लैंगिक भेदभाव मुक्त, समता - मूलक समाज की स्थापना का स्वप्न पूरा किया जा सके........एक बेहतर भारत का निर्माण हो सके |
और वह भी तब जब हमने कुछ ही दिन पहले अपना स्वतंत्रता-दिवस मनाया है !!!!!!!
इसके लिए राय को खूब लानतें भी दी गयीं ( वैसे देने वालों ने तो मीडिया के सामने चुन-चुन कर, गला फाड़ कर गालियाँ देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी ताकि लगे हाथ खुद को सच्चा बाज-बहादुर घोषित किया जा सके ) |
यह सही है की वि. न. राय ने ऐसे ओछे शब्दों का इस्तेमाल कर न सिर्फ एक प्रतिष्ठित संस्थान और अपने पद की गरिमा को कलंकित किया है बल्कि हिंदी भाषा और साहित्य का भी अपमान किया है , इसके लिए उन्हें कभी भी क्षमा नहीं किया जा सकता | किन्तु पहली बात तो यह की क्या इस ओर ध्यान देने की जरुरत नहीं है की विभूति नारायण की आलोचना करते-करते हमने अपनी सारी मर्यादायों को तार-तार कर दिया..........आलोचना के फेर में हम इस शख्स से कई कदम आगे निकल आये..............और ऊपर से तुर्रा यह की हम अपने को पाक-साफ़ घोषित करते जा रहे हैं???
और तो और हमारी महिला लेखक भी पीछे नहीं रहीं इस कुकरहाव में !!!!
तो भैया फर्क क्या रहा हम में और राय के बीच ???
यह तो रही राय की बात , पर असल बात तो यह है कि
आखिर कभी इतना बवाल तब क्यों नहीं मचता जब स्त्री-लेखन और विमर्श के नाम पर जी भर-भर के पुरूषों को तो गालियाँ दी ही जाती हैं , महिलाओं को भी नहीं छोड़ा जाता और इसमें उन तथाकथित-स्वयंभू महिला लेखकों और विचारकों का महान योगदान रहता है |
क्या उन्हें सिर्फ इस बात की छूट देते रहना चाहिए की वे या तो स्वयं महिला हैं या फिर महिलाओं के लिए लिखते हैं ???
इससे तो यही सिद्ध होता है की यहाँ ऐसे विभूति नारायणो की कमी नहीं है |
और सिर्फ स्त्री - लेखन ही क्यों जरा दलित-लेखन की ओर भी नजरें घुमाइए.......दलित लेखन के नाम पर जिस तरह से सवर्णों को गालियाँ दी जाती रहीं हैं उसे क्या माना जाना चाहिए ???
दलित-लेखन और स्त्री-लेखन के बहाने अपनी दूकान चलाने वाले इन स्वयंभू मठाधिशो को की आलोचना करने का साहस क्या किसी में भी नहीं है???
दलितों और स्त्रियों को सामान दर्जा दिलाने के नाम पर आखिर कब तक इस छुद्र मानसिकता का समर्थन किया जाता रहेगा ???
क्या गरिया देने भर से स्त्रियों-दलितों को उनका हक मिल जाता है ???
क्या समाज में उनको सामान एवं सम्माननीय स्थान मिल जाएगा ???
जी बिलकुल भी नहीं !!!!!
बल्कि ऐसे तो सामाजिक विद्वेष कि भावना और बढ़ेगी |हाँ ऐसी हरक़तों से वे तथाकथित-स्वयंभू उद्धारक खुद को स्त्रियों-दलितों के मसीहा के रूप में जरुर स्थापित कर लेते हैं |
एक तरफ तो बात स्त्री - पुरुष समानता की की जाती है पर तुरंत ही उनका गधों कि तरह रेंकना माफ़ कीजियेगा गरियाना चालू हो जाता हैं....... (मानो गधों का कोरस गान चल रहा हो ).........
क्यों भला ???
फिर ऐसे तो समानता आने से रही |
तो क्या यह सही वक्त नहीं है एक बार फिर इस बात पर विचार करने का ????
और वह भी तब जब हमने कुछ ही दिन पहले अपना स्वतंत्रता-दिवस मनाया है !!!!!!!
ज़वान जज़्बे
सोई हुई दुनिया की क़िस्मत को जगा देंगे
इफ़लास के सीने से शोले जो लपकते हैं
महलों में अमीरों के वो आग लगा देंगे
हैं आज बग़ावत पर तैयार जवां जज़्बे
जल्लाद हुकुमत की बुनियाद हिला देंगे
यूँ फूल खिलाएंगे टपका के लहू अपना
ग़ुरबत के बयाबां को गुलज़ार बना देंगे
हम पर्चमे-क़ौमी को लहरा के हिमाला पर
दुश्मन की हुकुमत के झंडे को झुका देंगे
जो आड़ में मज़हब की हंगामा करे बरपा
हम ऐसे फ़सादी को गंगा में बहा देंगे
सर जाए की जां जाए, ऐ मादरे-हिन्द इक दिन
ज़िल्लत से गुलामी की हम तुझको छुड़ा देंगे
किस तरह संवरता है सर देने से मुस्तक़बिल
ग़ैरों को बता देंगे अपनों को सिखा दंगे इफ़लास - दरिद्रता
मुस्तक़बिल -भविष्य
-'शमीम' करहानी द्वारा रचित
स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान शमीम द्वारा लिखी गयी यह नज़्म आज .........जब भ्रष्ट राजनीति और साम्प्रदायिकता की दुरभि-संधि देश का कबाड़ा किये जा रही है, कहीं ज्यादा प्रासंगिक है जितनी उस समय थी |
शनिवार, 14 अगस्त 2010
जिंदगी का राज मुजामिर....... ----शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल'
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायों सहित
देश पर कुर्बान हो जाने वाले शहीदों को समर्पित
चर्चा अपने क़त्ल का अब यार की महफ़िल में है
देखना है यह तमाशा कौन-सी मंजिल में है
देश पर कुर्बान होते जाओ तुम, ऐ हिंदियों
जिंदगी का राज़ मुज़मिर खंजरे -कातिल में है
साहिले-मक्सूद पर ले चल खुदारा , नाखुदा
आज हिन्दुस्तान की कश्ती बड़ी मुश्किल में है
दूर हो अब हिंदी से तारीकी-ऐ-बुग्ज़ो-हसद
बस यही हसरत , यही अरमां हमारे दिल में है
बामे-रफअत पर चढ़ा दो देश पर होकर फ़ना
'बिस्मिल' अब इतनी हवस बाक़ी हमारे दिल में है
साहिले-मक्सूद - अभीष्ट तट
खुदारा - खुदा के लिए
नाखुदा - मल्लाह
तारिकी-ए-बुग्ज़ो - ईर्ष्या और द्वेष का अंधकार
बामे-रफअत - ऊंची छत
बुधवार, 4 अगस्त 2010
" शोरिशे - जुनूं "..........शहीदे - काकोरी अश्फाकउल्ला खां 'अश्फाक' की आखिरी नज्म
"बहार आई है 'शोरिश' है जूनुने-फितना सामां की
इलाही खैर रखना तू मिरे जैबो-गरीबां की
भला जज्बाते-उल्फत भी कहीं मिटने से मिटते हैं
अबस हैं धमकियां दारो-रसन की और जिन्दां की
वो गुलशन जो कभी आजाद था गुजरे ज़माने में
मैं हूँ शाखे-शिक़स्ता यां उसी उजड़े गुलिस्तां की
नहीं तुमसे शिकायत हमसफीराने-चमन मुझको
मेरी तकदीर में ही था कफस और कैद जिन्दां की
जमीं दुश्मन जमां दुश्मन , जो अपने थे पराये हैं
सुनोगे दास्तां क्या तुम , मेरे हाले परीशां की
ये झगड़े और बखेड़े मेट कर आपस में मिल जाओ
अबस तफरीक है तुम में यह हिन्दू और मुसलमां की
सभी सामाने-ईश्रत थे , मजे से अपनी कटती थी
वतन के ईश्क ने हमको हवा खिलवाई जिन्दां की
बहम्द इल्लाह चमक उट्ठा सितारा मेरी किस्मत का
क़ि तकलीदे-हकीकी की अता शाहे-शहीदां की
ईधर खौफे-खजां है आशियां का गम उधर दिल को
हमें यकसां है तफरीहे -चमन और कैद जिन्दां की "
सामां - ऊपद्रव भड़काने वाला उन्माद
जज्बाते-उल्फत - प्रेम की भावना
दारो-रसन - सूली और फांसी का फंदा
जिन्दां - जेलखाना
शाखे-शिक़स्तां - टूटी हुई डाली
हमसफीराने-चमन - बाग़ के साथी
अबस - बेकार
तफरीक - भेदभाव
सामाने-ईश्रत - सुख - चैन की सामग्री
बहम्द इल्लाह - अल्लाह की कृपा से
तक़लीदे-हकीकी - सत्य का अनुसरण
खौफे-खजां - पतझड़ का डर
आशियां - घोंसला
रविवार, 11 जुलाई 2010
जो हम फ़रियाद करते हैं .........
इलाही खैर ! वो हरदम नई बेदाद करते हैं
हमें तोहमत लगाते हैं जो हम फ़रियाद करते हैं
कभी आजाद करते हैं कभी बेदाद करते हैं
मगर इस पर भी हम सौ जी से उनको याद करते हैं
असीराने-कफस से काश यह सैय्याद कह देता
रहो आजाद होकर हम तुम्हे आजाद करते हैं
रहा करता है अहले- गम को क्या-क्या इन्तजार इस का
कि देखें वो दिले-नाशाद को कब शाद करते हैं
यह कह-कहकर बसर की उम्र हमने कैदे-उल्फत में
वो अब आजाद करते हैं , वो अब आजाद करते हैं
सितम ऐसा नहीं देखा , जफा ऐसी नहीं देखी
वो चुप रहने को कहते हैं जो हम फ़रियाद करते है
यह अच्छी बात नहीं होती , यह अच्छी बात नहीं करते
हमें बेकस समझकर आप क्यों बर्बाद करते हैं
- रामप्रसाद 'बिस्मिल'
हमें तोहमत लगाते हैं जो हम फ़रियाद करते हैं
कभी आजाद करते हैं कभी बेदाद करते हैं
मगर इस पर भी हम सौ जी से उनको याद करते हैं
असीराने-कफस से काश यह सैय्याद कह देता
रहो आजाद होकर हम तुम्हे आजाद करते हैं
रहा करता है अहले- गम को क्या-क्या इन्तजार इस का
कि देखें वो दिले-नाशाद को कब शाद करते हैं
यह कह-कहकर बसर की उम्र हमने कैदे-उल्फत में
वो अब आजाद करते हैं , वो अब आजाद करते हैं
सितम ऐसा नहीं देखा , जफा ऐसी नहीं देखी
वो चुप रहने को कहते हैं जो हम फ़रियाद करते है
कोई बिस्मिल बनाता है जो मक्तल में हमें "बिस्मिल"
जो हम डरकर दबी आवाज से फ़रियाद करते हैं
यह अच्छी बात नहीं होती , यह अच्छी बात नहीं करते
हमें बेकस समझकर आप क्यों बर्बाद करते हैं
- रामप्रसाद 'बिस्मिल'
शनिवार, 3 जुलाई 2010
ओ माय लव !
ओ माय लव !
महसूस किया है मैंने
अपने आप में तुम्हे
शायद ! तुमने भी
किया हो मुझे प्यार
लेकिन माफ़ करना
ये आग जो सीने में
धधकती है रात - दिन
वास्तव में उनके लिए है
जिनके दिल जलते है
बुझे हुए चूल्हे देखकर
(धर्मेन्द्र जी "आजाद ")
महसूस किया है मैंने
अपने आप में तुम्हे
शायद ! तुमने भी
किया हो मुझे प्यार
लेकिन माफ़ करना
ये आग जो सीने में
धधकती है रात - दिन
वास्तव में उनके लिए है
जिनके दिल जलते है
बुझे हुए चूल्हे देखकर
(धर्मेन्द्र जी "आजाद ")
मंगलवार, 15 जून 2010
और हवा जहरीली हो गई...........
...........???? |
किसी प्रगतिशील शहर के एक व्यस्त चौराहे पर..... |
वे दोनों विपरीत दिशाओं से चले आ रहे थे .....अपने आप में खोए हुए |
तभी अचानक .... !! न जाने कैसे दोनों की आपस में टक्कर हो गई | बात बढ़ते-बढ़ते मार - पीट तक पहुँच गई | दोनों ओर से लात - घूंसे चलने की नौबत आ गयी | गालियों की बौछार भी शुरू हो गई | पर कुछ समझदार लोगों ने बीच-बचाव कर मामला शांत करवा दिया | सब अपने -अपने घर चले गए |
दूसरे दिन अखबार में खबर छपी - " भरे बाजार में दलित को पीटा "
अब वह दोनों साधारण से राहगीर नहीं रह थे , उन्हें उनकी पहचान मिल चुकी थी और हवा कुछ जहरीली सी हो गई थी.........
शुक्रवार, 11 जून 2010
खबर की कीमत............!!!!!!!
"अर्थात युगांतर का मूल्य फिरंगी का तुरंत ताजा काटा हुआ सर है""युगान्तरेर मूल्य - फिरंगिर कांचा माथा "
स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय अपनी प्रखर पत्रकारिता से फिरंगी सरकार को आक्रान्त कर देने वाले "युगांतर " की ये पंक्तियाँ कुछ दिनों पहले उस समय मुझे बरबस याद हो आईं , जब मीडिया मुग़ल 'नेट' पर उपलब्ध "उच्च गुणवत्ता" (?) वाली खबरों का मूल्य बताने में जुटे थे |
माना कि आज कि परिस्थितियों की तुलना १०० वर्ष पूर्व की परिस्थितियों से नहीं की जा सकती , इस अवधि के दौरान पत्रकारिता में मिशन के साथ - साथ व्यवसायिकता का पुट भी आ गया है , मंहगाई के इस दौर में गुणवत्ता युक्त सूचनाओं की लागत भी स्वाभाविक रूप से बढ़ी है , ........लेकिन क्या इसके बाद भी यह सारे तर्क पाठकों से खबर का मूल्य वसूलने के लिए पर्याप्त मान लेने जाने चाहिए ? या फिर माना जाना चाहिए कि वास्तविकता में यह प्रयास सूचना की लागत से जुडा न होकर , कमाई का एक और रास्ता खोलने से सम्बंधित है | तो क्या यह भी मान लेना चाहिए कि पत्रकारिता का मूल्य उद्देश्य- 'मिशन' , 'प्रोफेशन' की गहरी खाई में कहीं दफ़न हो गया है ?
बिलकुल नहीं ! वर्तमान समय में भी विशेषकर "प्रिंट मीडिया" लोकतंत्र के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाहन पूरी ईमानदारी से कर रहा है | अत ; तथाकथित "मीडिया मुग़ल महोदय" और दर्शकों -पाठकों से खबरों का मूल्य वसूलने को आतुर उनके साथियों को प्रिंट मीडिया से सीख लेनी चाहिए , जो मुद्रण लगत में अत्यधिक बढ़ोत्तरी होने के बाद भी पाठकों को "उच्च गुणवत्ता युक्त ' खबरें उपलब्ध करवा रहा है |
और आज जब स्वतंत्रता प्राप्ति के ६२ वर्षों पश्चात हम लक्ष्य २०२० तक भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने कि दिशा में कार्य कर रहे हैं , तो ऐसे समय में अशिक्षा , भ्रष्टाचार गरीबी , कुरीतियों , को दूर करने में सहायक सूचना माध्यमों कि भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है |
अत: ऐसे प्रयास न सिर्फ जन को सूचना से दूर करने वाले सिद्ध होंगे , बल्कि भारत को एक महाशक्ति के तौर पर स्थापित करने में मीडिया के मार्ग में रोड़े डालने वाले होंगे |
बुधवार, 9 जून 2010
भोपाल गैस कांड : जिम्मेदार कौन ?
मैं मनीष तिवारी अपने विचारों के साथ आपके सामने उपस्थित हूँ ,
गैस रिसाव के बाद लगा लाशों का ढेर |
अब सरकार से लेकर स्वयंसेवी सगठनों और न्यायिक तंत्र ने आरोप लगाना शुरू कर दिया है कि पुलिस ने लापरवाही की है , पर्याप्त सबूत नहीं पेश किये गए , मुकदमें के दौरान लापरवाही बरती गयी और जानबूझकर हल्की धाराएँ लगायी गयीं ,
पर भई सोचने की बात तो यह कि यह जो सारे लोग आज हो हल्ला मचा रहे हैं, उस समय कहाँ थे जब यह सब किया जा रहा था ?
क्या सरकार ने उस समय अपनी आँखे बंद कर रखीं थीं, जब केस के दौरान लापरवाही बरती जा रहीं थी ?
दुधमुहे को बचाने को अंतिम सांस तक जुटी रही एक माँ |
और अगर ऐसा नहीं है , तो भी इस सब के लिए जितनी जिम्मेदार जांच एजेंसियां और पुलिस हैं उससे कहीं ज्यादा दोषी सरकार और यही स्वयंसेवी संगठन भी हैं !
हाँ यदि वे दोषी नहीं हैं , तब तो फिर सभी उतने ही पाक-साफ हैं ?
तो फिर आखिरकार भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार कौन है ?
क्या सच में कोई नहीं ????
असल गुनहगार कौन ? कुछ काम न आया...
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